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Satya Prakash's POV
बंगलुरु -स्त्री-विरोध के बहाने
(औरत और हमारा समाज )
(औरत और हमारा समाज )
हर चीज़ का मैक्डोनिलिज़शन हुआ है ! बाज़ार हम पर यूँ हावी है कि मत पूछों ! "फिल्म की हीरोइन" की चर्चा ही ज़्यादा होती है ! हीरो तो अक्षय कुमार, अजय देवगन, शाहरुख़ खान, सलमान खान ,अमीर खान और कुछ और नए बाज़ार द्वारा -स्थापित हीरों पुत्रों का ब्रांड है और फिल्म में हीरोइन इनके साथ नयी भी हो .चलेगा ! ये भी पुरुषवादी मानसिकता बाजार पर हावी है ! कुछ भी हो नयी हेरोइनों को बाज़ार एक नए अंदाज़ में ( लेकिन ऑब्जेक्ट से ज़्यादा कुछ नहीं) ही पेश करता है, जैसा कि पुरानी स्थापित हेरोइनों के साथ आरम्भ में हुआ होगा !
हम बाज़ार के प्रेसर से मुक्त नहीं हैं ! महानगरों में सबसे ज़्यादा, छोटे शहरों और सबसे छोटे शहरों में भी ये प्रेसर कम नहीं है ! फिर भी, महानगरों की तुलना में ये कम है !इसीलिए वक़्त की अधिकता की वजह से पूँजी और बाज़ार के अतिरिक्त, जाति और धर्म लोगों की मानसिकता पर हावी होते है ! राजनीतिक और सामाजिक वर्चस्व का सामंती -अवशेष भी औरत को "बिस्तर से ज़्यादा की चीज़ " नहीं समझता है !
वतुतः सदियों से दास-प्रथा हो , राजतन्त्र हो , मुगलों की मनसबदारी हो, अंग्रेजों की व्यवसायिक और तकनीकी -गुलामी ब्रिटानियां राज्य हो या आज़ाद भारत का लोकतंत्र हो , पुरुष और बाज़ार के बीच के रिश्तों में औरत क्रय-विक्रय का सामान बनी रही ! प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में ही सही !
आधुनिक होने के लिए, सोच को प्रगतिशील और समकालीन होना चाहिए लेकिन बाज़ार बाध्य तो करता है ! बाज़ार का नियामक तत्व मान लीजिये फैशन इंडस्ट्री है तो उसे बेचना भी है और उसे खरीद दार भी चाहिए ! इसीलिए उपभोक्ता-संस्कृति विज्ञापनों के नाना-प्रकार के माध्यमों से फैलाया जाता है और जनता आदतन इसका शिकार हो जाती है ! बहुत कम ऐसी औरत हैं जो इस उपभोक्ता की शिकार न हो रही हो ! शिक्षित और अमीर औरतें दीखती ज़रूर हैं कि वे प्रगतिशील और जागरूक इंसान हैं लेकिन वतुतः वे भी उपभोक्तावादी औरत ही होती हैं जो लंबी कार में घुमती है और बैंक अकाउंट में भरपूर रकम है लेकिन आम जीवन में दूसरें लोगों या औरतों के अधिकारों के विरूद्ध ही बात करती या काम करती नज़र आएगी !
उपभोक्ता-संस्कृति बाजार के भोगवाद -मानसिकता का संवरण और संरक्षण ग्लैमर के परिधानों में करता है ! जनता ग्लैमर के मवाद में धसती चली जाती है !इस उदारवादी पूँजी का वैश्विक- बाज़ार ने हमारे समाज तक तो अपनी पहुच बना ही लिया है लेकिन खतरा तब और बढ़ जाएगा जब पूँजी हमारे घरों को भी दूकान में तब्दील कर देगा!
बाज़ार में पूँजी के बढ़ते प्रभाव ने ही संयुक्त परिवार को छिन्न -भिन्न कर दिया है! ये प्रेसर इतना बढ़ा है कि न्युक्लेअर फॅमिली भी खतरनाक मोड़ पर है ! "live-in-रिलेशन " भी दो-तीन साल में leave-in- Relation में बदल गया है ! बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि बड़े-बड़े-शहरों में लोग बिगड़ गए हैं ,उन्हें अपनी संस्कृति -सभ्यता का अब अता-पता नहीं ! अब तो छोटे-छोटे शहरों में भी तलाक़ होने लगे हैं ! कुछ ही कारण होते हैं जो बाज़ार के प्रेशर से मुक्त होते हैं ! पूँजी की अराजकता बड़ी भयावह होती है और वो सारे रिश्तों को अपने अनंत सागर में समां लेती है !
चाहे ओ अमूर्त आईडिया हो या चाहे मूर्त उत्पाद या चाहे मर्द हो या औरत पूंजीवादी समाज में सबकुछ बिकते हैं ! भारत जैसे विकासशील पूंजीवादी देश में सामंती-मूल्यों के जीवित होने और पूंजीवादी पार्टियों के लिए वोट पाने का खुराक बनने की वजह से नैतिक-मूल्य और सिद्धांतों की बात होती है और आंदोलन उठ खड़े होते हैं !
बंगलुरु की शर्मनाक घटना आवारा पूंजीवाद के बढ़ते पुरुष आवारगी की वजह से संभव हुआ है ! दो लड़को के मोलेस्टेशन से लड़कियां गुस्से में आयी और लड़कियों ने विरोध किया...नया साल क्या हाई-टेक बंगलुरु के नौजवान ऐसे मनाते हैं ? मुझे भी और आपसब को भी गुस्सा आएगा लेकिन ज़्यादा नहीं , लगभद दस साल के बाद , अगर यही ग्लोबल लिबरल इकॉनमी की आवारगी बढती गयी तो लड़कियों का विरोध भी संभव नहीं है , उसकी चर्चा समाचारपत्रों और टेलीविजन न्यूज़ चैनलो पर हो भी जाए तो ये विषय क़ानून का हो जाएगा ! दस-पंद्रह साल बाद, हमारा पूरा समाज और घर पूँजी की गिरफ्त में होंगे ! जैसा कि पश्चमी देशों और अमेरिका में होता है ! हमारे यहाँ ,वैश्यावृति अपराध है लेकिन पूँजीवाद के अबाध विकास इसे क़ानून में तब्दील कर देगा कि वैश्यावृति को काम के दायरे में लाकर इसे टैक्स-भुगतान-प्रक्रिया से जोड़ देगा ! जैसे यूरोपीय देशों के होटल में ठहरे तो एस्कॉर्ट सर्विस में आसानी से उपलब्ध है !नग्न-पूँजीवाद औरत के देह को व्यापार का साधन समझता है और साध्य बेशुमार अर्थ की प्राप्ति !
पूँजीवाद पूँजी के जमाखोरी की प्रतियोगिता में मनुष्य को संवेदनहीन बनाकर उसके जीवन जीने का एक यंत्र बना देता है ! आत्महत्या , अपराध , असमानता , गरीबी, भूखमरी , बेरोज़गारी , हिंसा ,भिखारीपन पूँजीवाद का चरित्र है जिसमे चमकते रोड तो होते हैं लेकिन ज़िन्दगानियां रात में सिसकती है , बड़े-बड़े मॉल तो देखते हैं लेकिन आम आदमी सिर्फ निहार कर आगे बाद जाते हैं ! कैशिनो में सपनो का दाव लगाकर हार जानेवाली मध्यवर्गीय आदमी शराब के नशे में ऊँचे-ऊँचे भवनों से कूद कर आत्महत्या कर लेते हैं !फर्राटेदार इंग्लिश बोलती युवा औरत कैशिनो में शराब बेचती है , देह बेचती है और कैशिनो के सर्कल को घूम कर जब्बर्दास्ती की हँसी हस्ती है ! विशाल आबादी वाले देश के कुछ पूंजीपतियों को अतिरिक्त धन अर्जित कमा कर देने के लिए दिन-रात भागते रहते हैं !
इसीलिए बंगलुरु एपिसोड के कारण ही इस समकालीन व्यवस्था के अंदर सिर्फ औरत ही चीज़ की तरह इस्तेमाल नहीं हो रही है बल्कि पूरी मानवजाति के अंदर की सारी संवेदना को ख़त्म करके यंत्र में तब्दील किया जा रहा है और जब पूँजीवाद के इस नंगे आवारगी में समाज गुलाम-व्यवस्था में लगभग दास-प्रथा में बदल रहा हो तो औरत का ऑब्जेक्टिफिकेशन को कौन रोक सकता है ?
जनता को तय करना है कि इस आवारा पूँजीवाद को आगे बढ़ाना है या एक संविधान-प्रदत्त -जनतांत्रिक समाजवाद चाहिए जहाँ कम से कम इंसानी बुनियादी-सरोकारों के साथ औरत और मर्द को एक इंसान बने रहने की प्रयास-रत-प्रक्रिया से खूबसूरत और समानतामूलक समाज तो बने जिसमे सिर्फ इंसान बसता हो !
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