Monday, December 12, 2016



About Films

Satya Prakash's POV


"अवाम का सिनेमा "
दुनिया गतिशील है ! आपको भी इसके साथ चलना पड़ेगा ! निर्मम प्रतियोगिता और व्यवहारिक दुनिया में आदमी आदमी से कटता जाता है !फीलिंग्स सिर्फ और सिर्फ अपने परिवार तक सीमित होती है ! इसके बाद की दुनिया बड़ी निर्मम और भयानक है लेकिन ज़िन्दगी के साथ दुनिया में जीने की चाह भी उतनी ही बनी रहती है जिसे हम उम्मीद कहते हैं ! इसीलिए सतत ,अविरल आशा और लड़ने की क्षमता के साथ काम करें, " सप्लाई और डिमांड " पर पूरी दुनिया आधारित है! हमसब की उपयोगिता इसी सिद्धांत पर होती है ! हम या तो सिनेमा के लिए डिमांड क्रिएट करवाते हैं तो सप्लाई हो जाते हैं और कलाकार , सुपर स्टार पैदा हो जाते हैं ! सिंपल सप्लाई भी होते रहते हैं जो उम्मीदों को ज़िंदा रखने के लिए और भी ज़रूरी होता है !

पूरी लड़ाई टेलीविजन और सिनेमा में प्रवेश और वहाँ रुके रहने की होती है ! चाहे वो अदाकार हो या लेखक या छायाकार हो या निर्देशक हो या निर्माता -हर आदमी कला की इस विधा से मोहब्बत करता है और बाज़ार के साथ चलने लगता है और बाज़ार का हिस्सा बन जाता है ! फिल्म के अंदर का ग्लैमर या फिल्म का कथानक फिल्म को व्यवसायिक बनाने पर ज़्यादा ज़ोर होता है ! लेकिन कुछ लोगों की लड़ाई अवाम के लिए फिल्म बनाने की होती है और ऐसी फिल्म बनती भी है लेकिन कमर्शियल फिल्मों ने दर्शकों के बड़े भाग की मानसिकता को बदल दिया है जो अवाम का सीमेम नहीं देख पाता है ! कमर्शियल फिल्म के लटके-झटके, बर्बोज़ संवाद और पुरुषवादी समाज की सेंसिटिविटी के हिसाब से औरत को ऑब्जेक्ट की तरह पेश करना, व्यक्तिवाद की पराकाष्ठा के ज़रिये एक महानायक को पैदा करना और शेष किरदार खलनायक के ख़त्म होने पर खुश होना और यही हमारा दर्शक भी करता है ! अच्छी फिल्म को अखबारनवीसों से अच्छी समालोचना भी नहीं मिल पाती और मिल गयी तो निर्माता और निर्देशक खुश तो हो लेते हैं की चलो कुछ स्टार्स मिल गए..!


निराश होने लगे तो तुरंत अपने को चार्ज करें और फिर से बैटलफील्ड में जाएँ ! इनसबों के लिए बहुत ज़रूरी है कि आपके पास जीने के लिए पैसा हो , खाने ,पढ़ने, रहने और चलने के लिए पैसा हो तभी इस विशाल सिनेमा और टेलीविजन जगत के " सप्लाई और डिमांड " की लंबी कतार में इंतज़ार किया जा सकता है वरना बहुत मुश्किल है ! लोगों की अच्छी फीलिंग उन्हें अच्छा और मानवीय ज़रूर बना देती है और उनके बीच अच्छी बाते भी होती रहती हैं लेकिन फिल्म और टेलीविजन का प्रोडक्शन में पैसा लगता है और बहुत लगता है ! उसी को पाने की होड़ में निर्देशक, निर्माता पागलों की तरह भागते रहते हैं !




सिनेमा आवाम के लिए बने और फिल्मों में काम करने वाले देश और दुनिया के उस अवाम ( जनता ) से जुड़ने के लिए फिल्म बनायें तो एक सामूहिकता का भाव ( सेंस ऑफ़ कल्लेक्टिविज़म) के साथ सुपर हीरो और सुपर हीरोइन या सुपर राइटर -डायरेक्टर का स्टारडम को थोड़ा विराम देना होगा ! नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी ,मीना कुमारी, महबूब साहेब, बलराज साहनी ,गुरुदत्त , राजकुमार ऐ के हंगल , ओम पूरी उत्पल दत्त , बासु भट्टाचार्य ,सचिन देव बर्मन, गोविन्द निहलानी आदि ऐसे फ़िल्मी शख्स हैं जिन्हें भारतीय सिनेमा कभी विस्मृत नहीं कर सकता है ! शाहरुख़ खान के स्टारडम के पीछे उनकी अनवरत लड़ाई है और जो उन लड़ाईयों को नहीं भूलता , वो सामूहिकता को भी नहीं भूल सकता !


आज शोर्ट -फिल्म यू ट्यूब और दूसरे सोशल मीडिया पर बनकर दौड़ती रहती है लेकिन स्टारडम और व्यक्तिपरक फिल्म ही बन रही है लेकिन वो हमें छूं नहीं पाती है क्योंकि समाज और उसके केंद्र में आदमी के संबंधों और सरकारों को केंद्र में नहीं डाला जाता है ! इन्टरनेट की फिल्म भी उसी विकृत मानसिकता से ग्रस्त औरत और मर्द के घिन आनेवाले दृश्यों का ही छायांकन होता है ..क्या एक फिल्म मेकर इंसान बना रहे तो ठीक है लेकिन फिल्म मेकर इस से पर होने लगता है तो पोर्न फिल्म बनाने लगता है और फिर वो अपने अंदर की सारी अच्छी फीलिंग और इमोशन को मारकर व्यक्तिवादी बनकर ऐसी फिल्म बनाकर पैसा कमाता है और ज़िंदा भर रहता है! समाज की सामूहिकता की उसे परवाह नहीं , उसे अपनी तरह की फिल्म दिखाने के लिए तैयार भर करने का प्रयास होता रहता है और हमारी पूरी व्यवस्था इसे समर्थन करती है और समाज को बाज़ार में बदल दिया जाता है ! लोग उपभोक्ता बन जाते हैं और समाज बाज़ार ! क्या फिल्म जाने-अनजाने समाज और आदमी को बदल रहा है ! मतलब सिनेमा आदमी और समाज को धीरे-धीरे ही सही बदलता है ! इन्टरनेट पर दौड़ने वाली शोर्ट फिल्म की गुणवत्ता पर न भी जाएँ तो कम से कम उनके कंटेंट पर ज़रूर ध्यान दे और सोचे ज़रूर कि हम कैसी फिल्म बना रहे हैं !


"अवाम का सिनेमा " हमेशा ज़िंदा रहेगा ! "मदर इंडिया " , वक़्त , तीसरी कसम , आवारा , श्री ४२० ,कागज़ के फूल ,प्यासा, मुन्ना भाई लगे रहो इत्यादि !

"सप्लाई एंड डिमांड " के अंतहीन लाइन में लगे फिल्मों के अंदर काम करने वाले अदाकार,अदाकारा तकनीशियन अपने अंदर के व्यक्तिवादी स्टारडम ( इंडिविजुअल स्टारडम) से इतने आक्रांत होते हैं कि एक लंबे समय की प्रतीक्षा के बाद वे बहुत कमज़ोर हो जाते हैं ! उनके अंदर का स्टारडम भी उनकी प्रतीक्षा को लंबा करा देता है !आसपास देखा जा सकता है और लेखक का अपना भोग यथार्थ भी है , कमज़ोर भी हुआ लेकिन सामूहिकता और सामाजिकता के सारे हलचलों से जुड़ा रहा और कुछ न कुछ करने की कोशिश जारी है !
"सप्लाई और डिमांड " का शिकार मत बने और हौसला बुलंद रखे !



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