Monday, April 17, 2017



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Satya Prakash's POV


नग्न-यथार्थवाद की क्रूरता में खूबसूरत उम्मीद का दास्तान---बेगम जान 

फिल्म " बेगम जान" भारत और पकिस्तान के रेडक्लिफ लाइन की  दिलचस्प दास्तान है ! निर्देशक सृजित मुखर्जी देश के बंटवारे को नहीं बल्कि दो देशो के मर्दवादी अफसरान जिस्म बेचनेवाली औरतों के घरों को ख़त्म करके, औरतों के वजूद को ख़त्म करके अंजाम देते हैं  ! खासकर ऐसी औरतें जो दोनों मुल्कों के सारे फरमानों को धता बताकर लड़ती है और अग्नि  से घिरे उस घर के दरवाजों के अंदर बंद कर जला कर खुद को ख़त्म कर देती है !
फिल्म के अंदर के कथानक मेलोड्रामा का  सहारा लेकर आगे बढ़ता जाता है ! फिल्म की  कहानी , घटनाएं इतनी वास्तविक होते हुए भी मेलोड्रामा से सराबोर हो उठती है ! शायद निर्देशक "बेगम जान" के कोठे के दर्द को रोमानियत  से रंग देना चाहते हैं ! कामयाब तो हुए हैं लेकिन कही-कही बोझिल भी दीखती है !

मशहूर अफसानानिगार इस्मत चुगताई और सआदत हसन मंटो की कुछ कहानियों को स्क्रीन प्ले में पिरोते हुए फिल्म को आरम्भ से अंत तक ले जाते हैं ! मंटो की एक दर्दनाक कहानी "खोल दो" के सकीना का किरदार शबनम में पैबस्त हो उठता है जो कोठे पर आने के पहले ही लूट ली गई है ! ये किरदार फिल्म में बहुत देर तक बर्फ की तरह सर्द पडी रहती है और कोठे को बचाने के सिलसिले में बूढ़े राजा के वहशीपन का शिकार बनती है!

जब दो मुल्क बन रहें हो और हवा में जमुहुरियत ( लोकतंत्र) की सायं -सायं आवाज़ें आ रही हो तो एक छोटे से ब्रॉथेल ( वैश्यालय) की समस्या का निदान दोनों मुल्को के अफसरान तो कर सकते थे ! 

फिल्म " बेगम जान" दोनों मुल्कों के रेडक्लिफ लकीर में गरीब. मज़लूम , बेबस औरतों की चीख को दफनाते हुए दिखती है कि दोनों आज़ाद मुल्क का आजतक के विस्तार में गरीब ,मज़दूर औरत रो-रो कर जी रहे हैं ! सरहद के दोनों तरफ इंसानों की हैसियत दबंग सरमायदारों के सामने कुछ भी नहीं है !

 फिल्म का क्लाइमेक्स में दोनों मुल्कों के अफसरानों और गुर्गे के साथ जिस वीरता के साथ ये जिस्म बेचनेवाली औरते  लड़ती है, ये आज के जड़त्व को प्राप्त होते हुए समाज में विद्रोह के आगाज़ होने की प्रेरणा भी दे जाता  है ! इसीलिए फिल्म के अंत में , आग की लपेट में गरीबों के घर जल रहे हैं , गरीब लड़ रहे हैं और शायर साहिर लुधियानवी के गीत बहुत कुछ कह जाते हैं --
 " वो सुबह तो कभी आएगी , वो सुबह तो कभी आएगी,
  इन काली सदियों के सर से, जब रात का आँचल ढलकेगा,
  जब दुःख के बदल पिघलेंगे,जब सुख का सागर छलकेगा,
  जब अम्बर झूम के नाचेगा,जब धरती नग्में गाएगी
   वो सुबह तो कभी आएगी !"
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  लेकिन दृश्य की भयानकता  ( घर के साथ ,औरत जल रही हैं) में  मेलोड्रामा क्रिएट कर साहिर का नगमा एक खूबसूरत दुनियां की तरफ इशारा करता है ! नग्न-यथार्थवाद की क्रूरता से खूबसूरत आशावाद पर आधारित फिल्म " बेगम जान " को एक बार तो ज़रूर देखिये ! 

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