Tuesday, October 6, 2015



About Film

Satya Prakash's POV

निर्दैशक गौतम घोष की फिल्म " पार" और हमारा समाज

गौतम घोष की बहुचर्चित फिल्म " पार" १९८४ में बानी थी , जो भारतीय समाज की दुर्दांत सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था पर प्रहार करती है ! स्कूल शिक्षक अनिल चटर्जी की हत्या बिहार के ज़मींदार का गुंडा कर देता है! शिक्षक गावं के लिए एक उदार और प्रगतिशील शख्स था ! नौरंगिया एक गरीब आदमी है जो ज़मींदार के अत्याचार का विरोध करता है और वो उसके भाई की हत्या कर अपनी पत्नी रमा के साथ क़ानून से भागता रहता है और कोलकता जाकर सांस लेता है लेकिन न नौकरी और न घर ! गर्भवती रमा परेशान है ! अंत में , उसे एक नौकरी मिलती है कि सूअरों के झुण्ड को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना ! इस यात्रा में एक नदी भी है और तेज़ झमाझम बरसात ! नदी की तेज़ धरा , तूफानी वारिस और जीवन के ताने-बाने ! सूअरों को नदी पार कराने और जीवन को आगे बढ़ाने में रमा अपनी गर्भ भी खो बैठती है !
पूरी फिल्म में नशीरूदीन शाह( नौरंगिया) . शबाना आज़मी ( रमा) और उत्पल दत्त ने अद्भुत अभिनय किया है !

स्वर्गीय पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह भी इस फिल्म कि कहानी से जुड़े थे ! गौतम दा का निर्देशन भी विलक्षण है !

इस फिल्म में जो कहानी है , क्या उससे अलग हमारा समाज है ? १९८४ की फिल्म है तो समाज बदला है , शोषण के तरीके बदले हैं , बिहार में कुछ नए ज़मींदार भी बने हैं ! क्या फिल्म में विचारधारा के नहीं होने से फिल्म एकांगी हो जाती है ? क्या बड़े स्टारों की फिल्म में भी तो नायक खलनायक को पीटता है तो क्या उसमें विचारधारा नहीं होती या समस्या को बहुत ही सस्ते ढंग से सरलीकृत कर दिया जाता है ?

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