Tuesday, June 30, 2015





About Film

Satya Prakash's POV


"बॉम्बे वेलवेट" में क्या अनुराग कश्यप मखमली बन गए !!

फिल्म "बॉम्बे वेलवेट " नवजात आज़ाद भारत में पूँजीवाद और अपराध की  दोस्ती और सहमेल से सामंती  पूँजीवाद "लूम्पेन कैपिटलिज्म" में बदलने की कथा कह जाती है !  इस फिल्म के ज़रिये नवजात भारत का लोकतंत्र पूँजीवाद का गुलाम बनता चला जाता है और उसी प्रारूप में आज का लोकतंत्र  है जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है ! हास्यप्रद है लेकिन निर्दैशक अनुराग कश्यप इसे बखूबी समझ लेते हैं और  फिल्म शुरू होती है ! "बॉम्बे वेलवेट " में खूबसूरत तथ्य को भी निर्देशक अनुराग ने दर्शाने की कोशिश की है कि बॉम्बे में दौलत हवा की रफ़्तार से भी ज़्यादा  बहती है या दौड़ती है !

 अमीर कैजाद खम्बाटा, पत्रकार जिमी मिस्त्री , रोमी पटेल , पुलिस, राजनीतिज्ञ और सड़क छाप अपराधी जोंनी बलराज का अपराध आदि सबकुछ  इस फिल्म के कथानक को आगे बढ़ाते रहते हैं  और ये तय हो जाता है कि  बॉम्बे सपनों का महानगर  ज़रूर है लेकिन स्वप्नदर्शी राज्य नहीं करता! सपनो का सौदागर  सपने देखनेवाले इंसानों को मज़बूर कर उसके सपनों में अपना हिस्सा बना लेते हैं ! अनुराग कश्यप ने बहुत बड़े  विषय को सिनेमा के परदे पर सच में वेलवेट की तरह, मुलायम मखमल  की तरह चलने देते हैं जो उनका सिनेमा के प्रति पैशन या रोमांस है और इसकी सराहना करना  चाहिए !


 मखमली वेलवेट की तरह कथानक का प्रवाह है , जो बहती तो है , दर्शक को लेकर चलती तो है लेकिन उस सरल प्रवाह में भूचाल पैदा नहीं होता !  नए उभरते  बॉम्बे शहर का  मूविंग दस्तावेज़ दर्शक के मन में  ज़्यादा हलचल  पैदा नहीं कर पाती है !  फिर भी अनुराग कश्यप और उनकी फिल्म बॉम्बे  वेलवेट की चर्चा हो रही है , कुछ स्वस्थ आलोचना के साथ तो कुछ बेमानी के साथ ! उनपर जो आरोप है, उसे ही रेखांकित करने का प्रयास है लेकिन इन आरोपों के परे निर्देशक अनुराग कश्यप अपनी बातें कई फिल्मों में  कह गए हैं और ये यहाँ भी कह देते हैं !

क्या कथानक और फॉमलिजम के बीच के अन्तः संबंधों के बीच संतुलन बिगड़ गया ? कौन किस पर भारी पड़ गया? क्या कथ्य,रूप और शैली के बीच का पुल ठीक से नहीं बन पाया ? निर्देशक अनुराग कश्यप पर अधिकांश आलोचक ऐसा ही आरोप लगा रहे हैं कि इस फिल्म के निर्माण के दौरान उनकी स्थापित फिल्म बनाने के  दृष्टिकोण में हस्तांतरण हुआ ! अनुराग अपनी फिल्मों में कंटेंट / कथ्य से फिल्म के रूप को  गढ़ते रहे हैं या फिल्म का रूप स्वयं निर्मित हो जाता है !


 लेकिन इस फिल्म में वो रूपवाद का शिकार हो गए और भाषा की संरचना या syntax  पर भी रूप और शैली का आरोपण है ! कुछ तो प्रभाव है ! फिल्म का निर्माण श्रीलंका में हुआ और लाज़मी है कि आज़ाद भारत के तुरंत बाद का बोम्बे का निर्माण हुआ और कला-निर्देशक के भव्य  सेट ने बोम्बे को बहुत ही खूबसूरती से चित्रित किया ! शायद  बहुत समय पुराने  बोम्बे को बनाने में निर्देशक का ध्यान उसमें रमा रहा ! १९५०-६० के दशक का भव्य बॉम्बे अपनी विराटता में कथा के प्रवाह को अवरुद्ध करती है ! इस प्रक्रिया में अनुराग कश्यप जी कही रूपवादी तो नहीं हो गए ? शायद ये   एक संभावना दीखती है ! मुझे लगता है कि नवजात भारत का बोम्बे,  वेलवेट की तरह न होकर, कुछ खुरदरा होता तो शायद फिल्म दर्शक को उद्दिग्न , उत्तेजित , सकते में  ला पाती   या रोमांस की गुदगुदी या अपराध की अंधी गलियों को दर्शक सिर्फ देखते हैं , उनसे जुड़ नहीं पाते !


अनुराग कश्यप एक बड़े फिल्म निर्देशक हैं , उनकी फिल्मों में कंटेंट ही फॉर्म को जन्म दे देता है! फिर भी ये फिल्म इस देश के अंदर आवारा पूँजीवाद का दस्तावेज़ तो बन ही गयी है !



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